लेख: प्रभुश्री की लेखनी से | दिनांक: 16 जून 2025 (सोमवार)
शीर्षक श्लोक:
एतेषु यश्चरते भ्राजमानेषु यथाकालं चाहुतयो ह्याददायन् ।
तं नयन्त्येताः सूर्यस्य रश्मयो यत्र देवानां पतिरेकोऽधिवासः ॥
– मुण्डकोपनिषद् 1.2.5
वेदांत साहित्य का मूल उद्देश्य आत्मा और ब्रह्म के ऐक्य का साक्षात्कार है। उपनिषदों में यह शिक्षा प्रमुख रूप से मिलती है कि समस्त धार्मिक क्रियाओं का अंतिम लक्ष्य केवल स्वर्गलोक नहीं, ब्रह्मविद्या — अर्थात आत्मज्ञान है। मुण्डकोपनिषद् इसी विषय को आगे बढ़ाता है और हमें एक ऐसे साधक की यात्रा दिखाता है जो कर्मकाण्ड की अग्नियों से प्रारम्भ कर ब्रह्मज्ञान की ज्वाला तक पहुँचता है।
इस मंत्र में जिस साधक की चर्चा की गई है, वह विधिपूर्वक यज्ञ करता है, आहुतियाँ देता है और धर्म के पथ पर अग्रसर होता है। उसकी यह श्रद्धा और तपस्या सराहनीय है, परंतु उपनिषद् यह स्पष्ट करता है कि यह मार्ग मोक्ष का नहीं, बल्कि स्वर्गलोक तक सीमित है।
भगवद्पाद आदिशंकराचार्य इस विषय में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि –
“कर्मणः फलं अल्पकालिकं, ज्ञानं तु नित्यफलप्रदं।”
यानी, कर्म का फल क्षणिक होता है जबकि ज्ञान का फल शाश्वत होता है।
मंत्र में सूर्य की किरणों को देवयान मार्ग का प्रतीक बताया गया है। यह वह मार्ग है जो पुण्यात्माओं को स्वर्गलोक की ओर ले जाता है। परंतु यह प्रकाशित मार्ग, स्व-प्रकाश ब्रह्म की तुलना में केवल एक पड़ाव है।
स्वर्ग प्राप्ति कोई अंतिम उपलब्धि नहीं है, क्योंकि वहाँ से पुनः पुनर्जन्म का चक्र शुरू होता है। केवल वह साधक जो अपने अहंकार को ज्ञान की अग्नि में समर्पित करता है, वही मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।
मंत्र की भाषा में यज्ञ की अग्नियाँ “भ्राजमान” कही गई हैं। ये अग्नियाँ केवल बाह्य क्रिया नहीं, बल्कि अंतःकरण की तपस्या का प्रतीक हैं। यज्ञ केवल साधन है — साध्य नहीं। जब तक साधक आत्मा के स्वरूप का अनुभव नहीं करता, तब तक वह मोक्ष के योग्य नहीं हो सकता।
शंकराचार्य स्पष्ट करते हैं कि यज्ञ से प्राप्त पुण्य भी माया के भीतर ही फलित होता है। ब्रह्मज्ञान ही वह तलवार है, जो अविद्या के बन्धन को काट सकती है।
आज के समय में भी जब मनुष्य धर्म का पालन करता है, यज्ञ-हवन करता है, तो उसकी भावना यह होती है कि वह पुण्य अर्जित कर रहा है। यह भावना निश्चित रूप से प्रशंसनीय है, परंतु यदि इस मार्ग में ज्ञान का आलोक न हो, तो यह प्रयास एक सीमित फल पर ही रुक जाएगा।
इसलिए आवश्यक है कि यज्ञ, जप, पूजा आदि के साथ-साथ आत्मचिंतन, स्वाध्याय और गुरुवाणी के माध्यम से आत्मज्ञान की दिशा में भी यात्रा की जाए।
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