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सुप्रीम कोर्ट: वक्फ कानून पर आ सकता है अंतरिम आदेश, शीर्ष कोर्ट में सुनवाई जारी; पढ़ें सरकार और अन्य की दलीलें

देश की राजनीति और न्यायपालिका के गलियारों में इन दिनों वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर तीखी बहस छिड़ी हुई है। केंद्र सरकार ने इस विधेयक को मार्च 2025 में अधिसूचित किया और 5 अप्रैल को इसे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी भी मिल गई। इसके साथ ही यह अधिनियम कानूनी रूप से लागू हो गया, लेकिन तभी से यह संसद, सड़क और सुप्रीम कोर्ट तक विवाद का विषय बना हुआ है। लोकसभा में इसे भारी बहुमत से पारित किया गया, जहां 288 सांसदों ने इसके पक्ष में और 232 ने इसके विरोध में मतदान किया। राज्यसभा में भी इसे 128 मत मिले जबकि 95 सांसद इसके विरोध में खड़े हुए।

इस अधिनियम के लागू होते ही देशभर से विरोध के स्वर उठने लगे। इसे संविधान के खिलाफ बताया गया, और खासकर मुस्लिम समाज के एक वर्ग ने इसे धार्मिक संपत्तियों के खिलाफ साजिश करार दिया। इस संशोधन को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं, जिनमें इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। 15 मई को हुई पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस मामले की सुनवाई 20 मई तक टाल दी थी और दोनों पक्षों से 19 मई तक अपने लिखित जवाब दाखिल करने के निर्देश दिए थे।

केरल सरकार ने भी इस मामले में हस्तक्षेप के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है। राज्य सरकार का तर्क है कि 2025 का संशोधन मूल वक्फ अधिनियम, 1995 की भावना और उद्देश्य से भटक गया है। उनका दावा है कि संशोधन के जरिए मुस्लिम समुदाय की वक्फ संपत्तियों की प्रकृति को बदला जा सकता है, जिससे न केवल संपत्ति के अधिकार प्रभावित होंगे, बल्कि धार्मिक स्वतंत्रता भी खतरे में पड़ जाएगी। केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि इसे मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखा जाए।

वक्फ अधिनियम का मूल उद्देश्य मुस्लिम समुदाय की धार्मिक और सामाजिक जरूरतों के लिए दी गई वक्फ संपत्तियों का संरक्षण और प्रबंधन है। ‘वक्फ’ एक इस्लामी प्रथा है, जिसमें कोई संपत्ति अल्लाह के नाम पर दान कर दी जाती है और उसका उपयोग धार्मिक या परोपकारी कार्यों के लिए होता है। वक्फ संपत्ति की यह विशेषता होती है कि एक बार इसे वक्फ घोषित कर दिया जाए तो वह संपत्ति हमेशा वक्फ ही रहती है – यानी ‘एक बार वक्फ, हमेशा वक्फ’। इस सिद्धांत को लेकर ही संशोधन पर सबसे अधिक सवाल उठ रहे हैं।

सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि यह अधिनियम एक “गैर-न्यायिक, कार्यकारी प्रक्रिया के माध्यम से वक्फ पर कब्जा करने” का प्रयास है। उन्होंने अदालत को बताया कि नए कानून के तहत सरकार को ऐसी शक्तियां दी गई हैं, जिनसे वह वक्फ संपत्तियों को गैर-अधिसूचित कर सकती है। यानी यदि कोई संपत्ति वक्फ के रूप में अधिसूचित है, लेकिन अब सरकार या कलेक्टर यह माने कि वह सरकारी जमीन है या उसकी कोई ऐतिहासिक/सांस्कृतिक अहमियत है, तो वह संपत्ति अब वक्फ नहीं मानी जाएगी।

कपिल सिब्बल ने इस प्रक्रिया को न्याय के मूल सिद्धांतों के खिलाफ बताया। उन्होंने कहा कि वक्फ संपत्तियों को इस तरह से शून्य कर देना केवल प्रार्थना स्थलों को खत्म करने का प्रयास है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि पहले भी कई बार वक्फ संपत्तियों को पुरातात्विक महत्व की संपत्ति बताकर अधिग्रहित किया गया, लेकिन अब यह विधेयक इस प्रक्रिया को एक “वैधानिक कवच” दे देता है।

सिब्बल ने यह भी दलील दी कि यदि एक बार संपत्ति वक्फ घोषित हो गई है, तो वह सिर्फ अल्लाह की है और कोई भी सरकार, एजेंसी या व्यक्ति उसे छू नहीं सकता। उन्होंने कहा कि यह केवल संपत्ति का मामला नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज की धार्मिक भावनाओं और धार्मिक स्वतंत्रता से भी जुड़ा है।

वहीं केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि सुनवाई को तीन मुद्दों तक सीमित रखा जाए ताकि कोर्ट किसी अंतरिम आदेश पर विचार कर सके। उन्होंने कहा कि अदालत को यह तय करना चाहिए कि अदालतों, उपयोगकर्ता या विलेख के जरिए वक्फ घोषित संपत्तियों को गैर-अधिसूचित करने की शक्ति संविधान के अनुरूप है या नहीं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि केंद्र का आश्वासन है कि किसी भी स्थापित वक्फ संपत्ति को बिना उचित प्रक्रिया के गैर-अधिसूचित नहीं किया जाएगा। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक नए अधिनियम के तहत न तो केंद्रीय वक्फ परिषद और न ही राज्य वक्फ बोर्ड में कोई नियुक्ति की गई है।

तीन प्रमुख मुद्दे हैं जिन पर कोर्ट ने ध्यान केंद्रित किया है – पहला, अदालतों या उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ घोषित संपत्तियों को गैर-अधिसूचित करने की शक्ति; दूसरा, राज्य वक्फ बोर्डों और केंद्रीय वक्फ परिषद की संरचना, जहां याचिकाकर्ताओं का कहना है कि पदेन सदस्यों को छोड़कर केवल मुसलमान ही इसमें शामिल होने चाहिए; और तीसरा, वह प्रावधान जिसके तहत जब कलेक्टर यह पता लगाएगा कि कोई संपत्ति सरकारी है या नहीं, तो वह संपत्ति वक्फ नहीं मानी जाएगी। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह प्रावधान प्रशासनिक अधिकारियों को असीमित अधिकार दे देता है जो न्याय प्रक्रिया के विपरीत है।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने इस बहस के दौरान कहा कि खजुराहो मंदिर जैसे कई प्राचीन स्मारकों में आज भी लोग प्रार्थना करते हैं, जबकि वे संरक्षित घोषित हैं। उनका यह बयान इस बात का संकेत है कि धार्मिक गतिविधियां और सांस्कृतिक संरक्षण एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कोर्ट जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष नहीं निकालेगा और सभी पक्षों को अपनी दलीलें रखने का पूरा मौका मिलेगा।

इस मामले में एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यदि यह अधिनियम लागू होता है तो हजारों वक्फ संपत्तियां जांच के दायरे में आ जाएंगी, खासकर वे जो शहरी क्षेत्रों में स्थित हैं और जिनकी बाजार कीमतें काफी अधिक हैं। यह भी आशंका जताई जा रही है कि सरकार इन संपत्तियों का उपयोग ‘डिसइन्वेस्टमेंट’ या अन्य विकास परियोजनाओं के लिए कर सकती है।

कई मुस्लिम संगठनों और धार्मिक नेताओं ने इस अधिनियम के खिलाफ सड़कों पर उतरने का ऐलान किया है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे संगठनों ने कहा है कि यह अधिनियम धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक अधिकारों पर आघात है। उधर, सत्तारूढ़ दल का कहना है कि यह कानून पारदर्शिता, जवाबदेही और वक्फ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन के लिए जरूरी है।

20 मई को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई इस पूरे मामले की दिशा तय कर सकती है। यदि अदालत किसी अंतरिम आदेश को पारित करती है, तो यह तय होगा कि वक्फ संपत्तियों की वैधानिक सुरक्षा बनी रहती है या उन्हें कार्यकारी निर्णयों के अधीन रखा जा सकता है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि वह 1995 के मूल वक्फ अधिनियम को निलंबित करने जैसी किसी याचिका पर विचार नहीं करेगी, लेकिन संशोधित प्रावधानों की वैधता पर जरूर विचार किया जाएगा।

देश में अल्पसंख्यकों के अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता और सरकार की नीतियों के संतुलन को लेकर यह एक महत्वपूर्ण कानूनी लड़ाई बन गई है। आगे का रास्ता न केवल मुस्लिम समुदाय, बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान की मूल भावना के लिए भी बेहद अहम है।

Vishal Singh

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