भारत और पाकिस्तान के बीच दशकों से चला आ रहा तनाव और सीमावर्ती क्षेत्रों में बार-बार होने वाली गोलीबारी ने न केवल कूटनीतिक स्तर पर बल्कि आम जनता के मन-मस्तिष्क पर भी गहरा असर डाला है। ऐसे में जब भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम (Ceasefire) की बात होती है, तो दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं – एक जो शांति की राह को सही मानते हैं और दूसरी जो जवाबी कार्रवाई और युद्ध के पक्षधर हैं। इसी संदर्भ में भारतीय थल सेना के पूर्व प्रमुख रिटायर्ड जनरल मनोज मुकुंद नरवाणे ने हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान बेहद स्पष्ट और मानवीय दृष्टिकोण से युद्ध और सीज़फायर को लेकर अपनी बात रखी, जो वर्तमान समय में चल रही बहसों के बीच एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप माना जा रहा है।
पुणे में आयोजित “इंस्टीट्यूट ऑफ कोस्ट अकाउंटेंट ऑफ इंडिया” के एक कार्यक्रम में बोलते हुए जनरल नरवाणे ने उन लोगों की आलोचना की जो युद्ध को हल के रूप में देखते हैं और संघर्ष विराम को कमजोरी मानते हैं। उन्होंने कहा कि “युद्ध कोई रोमांटिक बॉलीवुड फिल्म नहीं है”, जिसमें नायक वीरता से लड़ता है और दर्शक तालियाँ बजाते हैं। बल्कि युद्ध की असली तस्वीर बेहद भयावह और दर्दनाक होती है, जो पीढ़ियों तक मानसिक, सामाजिक और आर्थिक असर छोड़ती है। जनरल नरवाणे के इस बयान ने ना केवल युद्ध की भयावहता को उजागर किया, बल्कि यह भी बताया कि युद्ध का समर्थन करना कितनी बड़ी नासमझी हो सकती है।
पूर्व सेना प्रमुख का यह बयान ऐसे समय में आया है जब भारत में सोशल मीडिया और विभिन्न मंचों पर पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कार्रवाई और सीमापार जवाबी हमले की मांग की जा रही है। बहुत से लोग मानते हैं कि पाकिस्तान केवल ताकत की भाषा समझता है और उसे उसी की शैली में जवाब देना चाहिए। लेकिन जनरल नरवाणे ने अपने अनुभव के आधार पर स्पष्ट किया कि युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए, ना कि पहली प्रतिक्रिया।
उन्होंने कार्यक्रम में यह भी कहा कि अगर उन्हें आदेश मिलता तो वे जरूर युद्धभूमि में जाते, लेकिन उनका व्यक्तिगत मानना यही रहेगा कि मुद्दों को पहले बातचीत और कूटनीतिक प्रयासों के जरिए सुलझाने की हरसंभव कोशिश की जानी चाहिए। एक सैन्य अधिकारी के रूप में उनका यह संतुलित दृष्टिकोण युद्ध और शांति के बीच अंतर को बारीकी से समझने का संकेत देता है। उनका कहना था कि एक अच्छा कमांडर वही होता है जो युद्ध को टाल सके, ना कि वह जो हर स्थिति में हथियार उठाने की वकालत करे।
सीमा पर रहने वाले आम नागरिकों की स्थिति पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि संघर्ष के समय सबसे ज्यादा पीड़ा उन्हीं को होती है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे छोटे-छोटे बच्चे रातें बंकरों में बिताने को मजबूर होते हैं। लगातार गोलाबारी और बमबारी की आवाज़ें उनके मन में स्थायी भय पैदा करती हैं। स्कूल बंद हो जाते हैं, परिवार बिखर जाते हैं, और एक सामान्य जीवन जीने की उम्मीदें ध्वस्त हो जाती हैं।
जनरल नरवाणे ने विशेष रूप से PTSD यानी पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर का जिक्र किया, जो युद्ध के दौरान या उसके बाद प्रभावित लोगों को होता है। उन्होंने कहा कि बहुत से सैनिक और सीमावर्ती क्षेत्र के नागरिक इस मानसिक विकार के शिकार हो जाते हैं और वर्षों बाद तक इससे उबर नहीं पाते। चिंता, घबराहट, नींद न आना, चिड़चिड़ापन और अवसाद जैसे लक्षण उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाते हैं। ऐसे लोग कई बार मनोचिकित्सक की सहायता लेने को मजबूर हो जाते हैं, लेकिन फिर भी सामान्य जीवन में लौट पाना आसान नहीं होता।
पूर्व सेना प्रमुख का यह बयान न केवल उनकी मानवीय संवेदना को दर्शाता है बल्कि एक अनुभवी सैन्य अधिकारी के तौर पर उनकी रणनीतिक समझ को भी उजागर करता है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि युद्ध में जीत और हार केवल सैन्य बल पर निर्भर नहीं होती, बल्कि यह निर्णय हजारों जिंदगियों, करोड़ों की संपत्ति और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को प्रभावित करता है।
जनरल नरवाणे का यह भी कहना था कि देश को अपनी सैन्य शक्ति पर गर्व जरूर होना चाहिए लेकिन इसका प्रयोग सोच-समझकर और अंतिम विकल्प के रूप में किया जाना चाहिए। उन्होंने यह बात भी रेखांकित की कि देश की सीमाओं की सुरक्षा करना जरूरी है, लेकिन साथ ही साथ नागरिकों की सुरक्षा और मानसिक शांति भी उतनी ही जरूरी है।
आज जब देश में एक वर्ग युद्ध को ही एकमात्र उपाय मानता है, ऐसे में सेना के पूर्व प्रमुख का यह यथार्थपरक बयान समाज को सोचने के लिए मजबूर करता है। यह बात समझने की आवश्यकता है कि राष्ट्रवाद और सैन्यवाद के बीच बारीक अंतर होता है। राष्ट्रवाद का मतलब है देश की भलाई और सुरक्षा सुनिश्चित करना, जबकि सैन्यवाद का मतलब है हर समस्या का समाधान केवल युद्ध के जरिए तलाशना।
पूर्व सेना प्रमुख मनोज नरवाणे के इस बयान को शांति और यथार्थ के पक्ष में खड़े एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के रूप में देखा जा रहा है। उनका यह दृष्टिकोण न केवल सेना में सेवा देने वालों को प्रेरणा देता है, बल्कि आम नागरिकों को भी यह सोचने पर मजबूर करता है कि युद्ध केवल सैनिकों का नहीं बल्कि पूरे देश का नुकसान है। युद्ध में केवल बंदूकें नहीं चलतीं, घर जलते हैं, सपने टूटते हैं और पीढ़ियाँ दर्द की विरासत ढोती हैं।
पिछले कुछ वर्षों में भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा पर हुए तनाव, सर्जिकल स्ट्राइक, एयर स्ट्राइक, पुलवामा हमला जैसी घटनाओं ने दोनों देशों के रिश्तों को और अधिक जटिल बना दिया है। इन घटनाओं के बाद सोशल मीडिया पर अक्सर युद्ध की मांग उठती रही है। लेकिन यह जरूरी है कि जनता भावनाओं में बहने के बजाय तथ्यों और अनुभवों के आधार पर निर्णय करे। युद्ध की विभीषिका को केवल वे लोग समझ सकते हैं जिन्होंने उसे झेला है – चाहे वे सैनिक हों या सीमावर्ती गांवों के नागरिक।
जनरल नरवाणे की यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वे उस संस्था का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं जो युद्ध में सबसे आगे खड़ी होती है। उनके शब्द सिर्फ सलाह नहीं, बल्कि चेतावनी हैं – कि युद्ध की राह पर चलने से पहले हमें उसके नतीजों को गंभीरता से समझना चाहिए।
आखिर में, भारत जैसे लोकतांत्रिक और जिम्मेदार राष्ट्र के लिए यह जरूरी है कि वह हर कदम रणनीति, समझ और संवेदनशीलता से उठाए। युद्ध एक रोमांच नहीं, एक त्रासदी है। और अगर एक सेना प्रमुख खुद यह कह रहा है कि “युद्ध कोई रोमांटिक बॉलीवुड फिल्म नहीं है”, तो यह वक्त है जब हम सब इस सच्चाई को स्वीकारें और शांति की दिशा में सोचें।
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