स्वामी अवधेशानंद गिरि

यस्याग्निहोत्रमदर्शमपौर्णमासम्

अचातुर्मास्यमनाग्रयणमतिथिवर्जितं च ।

अहुतमवैश्वदेवमविधिना हुतम्

आ सप्तमांस्तस्य लोकान् हिनस्ति ॥

              – मुण्डकोपनिषद्  १.२.३

 

वेदान्त का मूल स्वर ज्ञान है अर्थात् ब्रह्मविद्या, आत्मबोध और अद्वैत की परम शान्ति। परन्तु यह ज्ञान सहज नहीं, यह एक आंतरिक अग्निकुण्ड से यात्रा कर प्राप्त होता है, जहाँ कर्म, उपासना और तपस्या की आहुतियाँ दी जाती हैं। मुण्डकोपनिषद्, जो कि ब्रह्मविद्या का एक उज्ज्वल दीपस्तम्भ है; कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के सम्बन्ध को बड़ी सूक्ष्मता और सत्यता से प्रस्तुत करता है।

इसी सन्दर्भ में यह मंत्र एक चेतावनी है, एक उद्घोष कि यज्ञ, दान और उपासना यदि वेदविहित विधि और श्रद्धा से रहित हो जाएँ, तो वे न केवल निष्फल होते हैं, वरन् साधक को पतन की ओर भी ले जा सकते हैं। जिसके अग्निहोत्र में अमावस्या और पूर्णिमा के विधिपूर्वक अनुष्ठान नहीं होते, जो चातुर्मास्य, अग्रयण यज्ञ और अतिथि सत्कार से रहित हो, जिसमें वैश्वदेव बलि न दी गई हो और जो सम्पूर्णतः विधिविहीन हो — ऐसा यज्ञ सातों लोकों को नष्ट कर देता है। वह साधक उन पुण्यफलों से वंचित हो जाता है, जो विधिवत् यज्ञों द्वारा प्राप्त किए जा सकते थे।

भगवद्पाद भाष्यकार शंकराचार्य इस मंत्र को केवल यज्ञ की निन्दा के रूप में नहीं, अपितु कर्म और ज्ञान के मध्य द्वंद्व के विवेकपूर्ण संधान के रूप में देखते हैं। भगवद्पाद का मन्तव्य स्पष्ट है कि “कर्म तभी तक उपयोगी है, जब तक वह वेदविहित विधि, श्रद्धा और लक्ष्य के साथ किये जाएँ ।” कर्म स्वयं में साध्य नहीं, वह साधन है। यदि वह श्रद्धाहीन, अविधिक और फल-कामना से युक्त हो, तो वह न तो ज्ञान की भूमि बना पाता है, न ही पुण्यफल दे पाता है। भगवद्पाद शंकराचार्य स्पष्ट कहते हैं : “मुक्तेः साधनं ज्ञानमेव, न कर्म” मोक्ष का साधन केवल ज्ञान है, कर्म नहीं।

अतः इस मंत्र के माध्यम से वे यह उद्घोषित करते हैं कि केवल कर्मकाण्ड में लिप्त रहना, वह भी विधि और भावना से रहित, साधक को न केवल मोक्ष से दूर करता है, अपितु अधोगति का कारण भी बन सकता है। यहाँ “हिनस्ति सप्त लोकान्” वाक्यांश बड़ा अर्थपूर्ण है — केवल एक लोक नहीं, वरन् सातों पुण्यलोकों से भी ऐसा कर्मविहीन यज्ञ फल विहीन ही है।

 

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